मैं और तुम …
क्या तुम ??
मुझमें खोना चाहते हो,
मुझे पाना चाहते हो,
क्या कहा “हां”,
तो मेरे दिल की सुनो,
मैं भी…
तुझमें समाना चाहती हूं।
देखो तुम ….
मेरी जिंदगी बन गए हो,
अब….
तुम्हारे सिवा ,
कुछ अच्छा ही नही लगता
तुम्हारे अलावा…
कोई भाता ही नहीं,
इस दिल ने…
तुम्हें अपना माना है
इन नैनों ने …
तुम्हें ही चाहा है तुम्हें ही पूजा है
तुम्हारी यादों में खोकर,
बांवरी सी हो जाती हूं।
अपनी सुध -बुध बिसरा कर मैं,
पगली सी हो जाती हूं ।
अंतर्मन ..अंतर्दशा.. कह पाना ,
शायद असम्भव है,
हां …
इतना कहना है कि..
मैं तुमसे बहुत प्रेम करती हूं।
इतना ज्यादा कि,
समंदर की गहराई भी शरमा जाये,
इतना ठोस कि ,
चट्टानों के दर्प चूर- चूर हो जाये,
मेरा प्रेम
सूरज की तरह जाज्वल्य सदा-सदा के लिए,
चंदा की तरह शीतल आदि- अनंत तक
मैं पूरी पागल हूं… पागल,
यही तो कहते हो तुम
मेरे प्यारे।
©क्षमा द्विवेदी, प्रयागराज