लेखक की कलम से
मुल्क नीमबेहोश है….
बहुत सख्त मौसम है
भाषा व्याकरणहीन हो चुकी है
और शब्द छूट गए हैं जड़ों से
जैसे आंधी में पत्ते टूट जाते हैं
शाखों से.
गाने भी फुसफुसाहटों में बदल गए हैं
मैं भी बयान नहीं कर पाता
ठीक ठीक
इस बदले मंजर का
बस अर्धमूर्छा में बड़बड़ाता हूँ.
पूरी बस्ती छिपने में लगी है
क्योंकि चला आ रहा है
एक लश्कर
जहर फेंकता.
मुल्क नीमबेहोश है
इस बार हमलावर
समुद्रपार से नहीं आये हैं
यहीं के विषधर हैं
मिट्टी के नीचे पड़े थे
सदियों से
उठ खड़े हुए हैं
गर्मी पाते ही