लेखक की कलम से
बहू ल बेटी बनाय ल लागथे …
नवा- नवा बहू ल, सब सिखाय ल लागथे ।
सही-गलत रसदा ल, चिन्हाय ल लागथे।।
कोन छोटे, कोन बड़े, बताय ल लागथे।
अपन मया पिरीत ल, जताय ल लागथे।
चुल्हा म छेना लकड़ी ल, दताय ल लागथे ।
कइसनो रांधे अल्वा जलवा, खाय लागथे ।।
बहू ल मइके के, मया भुलाय ल लागथे ।
नवा -नवा रसम घलक, निभाय ल लागथे ।।
घर के सभ्यता संस्कार, सिखाय ल लागथे।
नारी के धरम -करम ल, बताय ल लागथे।।
संग म खेत -खार डहर, रेंगाय ल लागथे ।
कांदी -कचरा ल, बने चिन्हाय ल लागथे।।
कोनों बात बिगड़ जाय, त बनाय ल लागथे।
वोकर मन के सिंगार, बिसाय ल लागथे।।
बहू ल जइसने सिखाबे, वइसने तो सिखही।
तभे तो वोहा तोर घर के, गृहलक्ष्मी दिखही।।
गृहस्थी के सब मरम ल, बताय ल लागथे।
बहू ल अपन घर के बेटी, बनाय ल लागथे।।
सुनता के डोरी म, परिवार चलाय ल लागथे।
प्रेम समर्पण से घर ल, सरग बनाय ल लागथे।।
©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)