लेखक की कलम से

मेरी बेचैनी …

 

तेरा हँस कर
मुझसे बात करना
मेरे लम्हों को
संवार देता है।
महसूस करती हूँ
तेरी मौजूदगी को
तेरी तस्वीर देख कर।
बहुत दूर है
तेरा घर, मेरे घर से
मगर-
आहट महसूस
होती है तेरी
बाहर दिखती
हर परछाईं से।
दिन निकलता है
शाम ढलती है,
रात कटती नहीं
ऑंखें तकती हैं बाहर
कि शायद
तू खड़ी है कहीं।
मत पूछ
कैसे गुज़रता है
हर क्षण,
कभी बातें
करने की हसरत
तो कभी देखने की
तमन्ना रहती है।
दिल बहुत बेचैन है
कहीं तू उदास तो नहीं
हवा से पूछती हूँ
कहीं तू
उचाट तो नहीं।

©डॉ. प्रज्ञा शारदा

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